ARKI KHEECHEE CHAUHAN ASOTHAR RAJVANSH
खीची चौहानों का गागरौन दुर्ग राजस्थान
एक ऐसा दुर्ग जो बिना चारो तरफ से जल से घीरा हुआ है और बिना नींव का यह दुर्ग है , आइये जानते है ----
इसके एक महान शासक अचलदास जी के बारे में और आगे उनके शासकों के बारे में ,
अचलदास जी वोहि वीर है जो सर कटने के बाद भी बिना सर के मुगलों से लड़ते रहे -
गढ़ गागरोन के इतिहास में अचलदास खींची का शासनकाल १४१०-१४२३ ई. एक रोमांचकारी अध्याय कहा जाता है। अचलदास का विवाह मेवाड़ के महाराणा मोकल की पुत्री लालादे से हुआ था और चित्तौड़-गागरोन के शूरवीर यौद्धाओं के सम्बंधो का गौरवशाली अतीत भी है।
अचलदास खींची के समय में ही मांडू के सुल्तान होशांग शाह ने एक बड़ी सेना ले कर गागरोन पर आक्रमण किया था तब अचलदास ने अपने पुत्र पाल्हण को मदद के लिये अपने ससुराल चित्तौड़गढ़ महाराणा मोकल के पास भेजा था परंतु दुर्भाग्य से सहायता समय पर पहूंच न पाई थी और तात्कालीन परिस्थितियों में अचलदास और उनकी सेना गागरोन के लिये शहीद हो गये। इसे इतिहास में गागरोन का पहला #साका कहा जाता है। तब दुर्ग में समस्त क्षत्राणियों नें भी गागरोन में प्रथम बार जौहर कर अपना बलिदान किया था। अब गागरोन पर होशांग शाह का अधिकार हो गया था।
इतिहास ने फिर करवट ली और १४३८ ई. में अचलदास के पुत्र पाल्हण ने जोरदार आक्रमण कर गढ़ गागरोन पर पुन:अधिकार कर लिया और गढ़ की सुरक्षा का और भी सुदृढ़ प्रबंध किया। १४३८-१४४३ तक पाल्हण के रुप में महाराणा कुंभा का ही शासन यहाँ रहा। १४४३ में महमूद खिलजी(प्रथम) ने पुन: इस दुर्ग पर घेरा डाला। महाराणा मोकल ने सेनापति धीरज के नेतृत्व में सेना भेजी। धीरज और पाल्हण ने धमासान युद्ध किया परंतु राजपूतों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। तब दो दशक बाद क्षत्राणियों ने पुन: जौहर कर बलिदान दिया और यह गागरोन का दूसरा साका कहा जाता है। सुल्तान का पुन:दुर्ग पर कब्जा हो गया और उसने तब इसका नाम मुस्तफाबाद भी रखा था।
समय अपने रंग बदलता रहा और और महाराणा सांगा ने प्रति-आक्रमण कर मालवा के इस सुल्तान को बुरी तरह हराया और उसे बंदी बनाकर चित्तौड़गढ़ ले गये। इसी विजय के उपलक्ष्य में चित्तौड़गढ़ के किले मे #विजय_स्तम्भ बनवाया जो आज भी उत्तुंग खड़ा गढ़ गागरोन और चित्तौढगढ के सामरिक समबन्धों की शौर्यगाथा कह रहा है।
.
गागरोन का दुर्ग दक्षिण-पूर्वी राजस्थान Archived 2021-06-11 at the Wayback Machine के सबसे प्राचीन व विकट दुर्गों में से एक गागरोन दुर्ग हैँ प्रमुख जल दुर्ग है ! जिसे झालावाड़ में आहू और कालीसिंध नदियों के संगम स्थल ‘सामेलजी’ के निकट डोड ( परमार ) राजपूतों द्वारा निर्मित्त करवाया गया था ! इन्हीं के नाम पर इसे डोडगढ़ या धूलरगढ़ कहते थे !
गागरोन दुर्ग भारतीय राज्य राजस्थान के झालावाड़ जिले में स्थित एक दुर्ग है। यह काली सिंध नदी और आहु नदी के संगम पर स्थित है। 21जूूून, 2013 को राजस्थान के 5 दुर्गों को युनेस्को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया जिसमें से गागरों दुर्ग भी एक है। यह झालावाड़ से उत्तर में 13 किमी की दूरी पर स्थित है। किले के प्रवेश द्वार के निकट ही सूफी संत ख्वाजा हमीनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है।[2] यह दुर्ग दो तरफ से नदी से, एक तरफ से खाई से और एक तरफ से पहाड़ी से घिरा हुआ है। कभी इस किले 92 मंदिर होते थे और सौ साल का पंचांग भी यहीं बना था।
यह तीन ओर से अहू और काली सिंध के पानी से घिरा हुआ है। पानी और जंगलों से सुरक्षित यह किला कुछ ही ऐतिहासिक स्थलों में से एक है जिसमें ‘वन’ और ‘जल’ दुर्ग दोनों हैं। किले के बाहर यात्री सूफी संत मिट्ठे शाह की दरगाह देख सकते हैं। प्रत्येक वर्ष मोहर्रम के अवसर पर यहाँ एक मेला आयोजित किया जाता है। संत पीपा जी का मठ भी, जो संत कबीर के समकालीन के रूप में प्रसिद्ध है, किले के पास स्थित है।
इतिहासकारों के अनुसार, इस दुर्ग का निर्माण सातवीं सदी से लेकर चौदहवीं सदी तक चला था। डोड राजा बीजलदेव ने 12वीं सदी में निर्माण कार्य करवाया था और 300 साल तक यहां खिंची राजपूतों ने राज किया एवं इन्ही खिंची राजपूतों के वंशज दरा के जंगल से सटी जांगिरों ज़ेसे बख़्सपुरा ,बालकू आदि में रहते हें । सीधी खड़ी चट्टानों पर ये किला आज भी बिना नींव के सधा हुआ खड़ा है। किले में तीन परकोटे है जबकि राजस्थान के अन्य किलो में दो ही परकोटे होते हैं। इस किले में दो प्रवेश द्वार हैं, एक पहाड़ी की तरफ खुलता है तो दूसरा नदी की तरफ। किले के सामने बनी गिद्ध खाई से किले पर सुरक्षा हेतु नजर राखी जाती थी।
तेरहवी शताब्दी में अल्लाउदीन खिलजी ने किले पर चढ़ाई की जिसे राजा जैतसिंह खिंची ने विफल कर दिया था। 1338 ई से 1368 तक राजा प्रताप राव ने गागरों पर राज किया और इसे एक समर्ध रियासत बना दिया। बाद में सन्यासी बनकर वही 'राजा संत पीपा' कहलाए। गुजरात के द्वारका में आज उनके नाम का मठ है।
चौदहवी सदी के मध्य तक गागरों किला एक समर्ध रियासत बन चुका था। इसी कारन मालवा के मुस्लिम घुसपैठिये शासको की नजर इस पर पड़ी। होशंग शाह ने 1423 ईस्वी में तीस हजार की सेना और कई अन्य अमीर राजाओ को साथ मिलाकर गढ़ को घेर लिया और अपने इसे जीत लिया।
आभार
खीची चौहान राजवंश अर्की मे गढ़ गागरौंन राजस्थान से आये अतिथि कृपाल सिंह जी (बड़वा) जो हमारे बाबा श्री डॉ महेंद्र प्रताप सिंह चौहान के निवेदन को स्वीकार कर, पीढ़ियों से खीची राजवंश का वंसवली लिखने की परंपरा के क्रम को अर्की मे पुरा परिवार एक उत्सव के रूप मे अपने गौरव पूर्ण इतिहास और वर्तमान एवम भविष्य मे भी पूर्वजो के, राजा भगवंत राव जैसे बलिदानी, या श्री शालिग बाबा की कृपा से इस परंपरा के अनुग्राहित हैं, ऐसे औशर् मे मुझे देल्ही से अर्की पहुँचाने मे चाचा श्री अतुल सिंह चौहान जी का बहुत बहुत आभार, की हैं सब ने राजवंश की कहानी सुनी, और अपने बाबा कर्नल अवधेश प्रताप सिंह जी भी बड़वा जी के स्वागत मे अपना अमूल्य समय दिये, दादा श्री कैप्टन सुघर सिंह चौहान जी, चाचा श्री प्राचार्य डॉ रणवीर सिंह जी, अधिवक्ता चाचा श्री राजेश सिंह जी चौहान, बाबा श्री डॉ अजय सिंह चौहान जी जिनका परिवार के प्रति अमूल्य योगदान रहा, सबसे बडी बात वर्षो बाद मेरे प्रिय, सभी हमजोली बड़े भाई मास्टर साहब श्री सुशांत प्रताप सिंह जी के हाथ से बना हुआ रात का राजपुतान पकवान, और चाचा श्री अजीत सिंह जी चौहान के साथ रात्रि विश्राम का भी औशर् अविश्मरणीय है, संपूर्ण कार्यक्रम प्रमुख चाचा श्री RTd आर्मी, प्रधानाअध्यापक चाचा श्री संतोष सिंह जी चौहान जी का बढ़ चढ़ कर सहयोग प्राप्त हुआ, परिवार ऐसे ही फलता फूलता रहे ऐसे ही बुजुर्गो की, ईश्वर की कृपा बनी रहे, खीची चौहान राजवंश अर्की अपने त्याग, पराक्रम, बलिदान, को ऐसे ही जीवंत रखे हम सब का प्रयास जारी रहेगा,,